पैरोल और बेल क्या है, आखिर क्या हैं इसके कानूनी दांव पेंच ?

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पैरोल और बेल:-

ये वो शब्द हैं जिनके बारे में तो आप सबने सुना ही होगा। लेकिन क्या आप इनके बारे मे जानते हैं? तो चलिए आज हम आपको इस लेख में पैरोल और बेल के बार में बताएंगे।

Parole And Bail Difference

आसान भाषा में समझे तो बेल परीक्षणाधीन (Under Trial) कैदियों को मिलता है यानी जिनपर अभी कोर्ट में कार्यवाही चल रही है और उन्हे सजा नहीं हुई है वहीं पैरोल सजा हो जाने के बाद मिलता है।  

सजा मिलने के बाद जेल में बंद कैदियों को पैरोल देने के कुछ मानक तय किए गए हैं, जैसे घर में किसी की मौत, गंभीर बीमारी, पत्नी की डिलिवरी है बेटे-बेटी या भाई बहन की शादी की स्तिथि में कैदी पैरोल की मांग कर सकता है साथ ही सुप्रीम कोर्ट में स्पेशल लीव पीटिशन (Special Leave Petition) की अर्जी दाखिल करने के लिए भी पैरोल मांगा जा सकता है।

इसके लिए दोषी व्यक्ति को जेल सुपरिंटेंडेंट को याचिका देना होता है जिसके बाद राज्य का गृह मंत्रालय याचिका पर निर्णय लेता है। अगर प्रशासनिक स्तर पर याचिका खारिज हो जाए तो याचिका हाई कोर्ट के सामने भी दाखिल की जा सकती है। हालांकी गंभीर अपराधों में दोषी कैदियों को पैरोल नहीं दी जाती है, रेप के बाद मर्डर या एक से ज्यादा हत्या में दोषी करार दिये गए कैदी को पैरोल नहीं मिलती है। इसके अलावा ऐसे मुजरिम जो भारत के नागरिक ही न हो या आतंकवाद अथवा देशद्रोह से संबंधित मामलों में दोषी करार दिए गए हो उन्हें भी पैरोल नहीं मिलती है। साथ ही खराब व्यवहार वाले मुजरिमों को भी पैरोल नहीं दी जाती है।

पैरोल दो प्रकार की होती है – 1. कस्टडी पैरोल  2 . रेगुलर पैरोल

कस्टडी पैरोल – के अंतर्गत दोषी अथवा अपराधी को किसी विशेष स्थिति में जेल से बाहर लाया जाता है यह ज्यादा से ज्यादा 6 घंटों के लिए दी जाती है। इस दौरान पुलिस की टीम भी दोषी के साथ मौजूद होती है।

रेगुलर पैरोल – कम से कम एक साल की सजा जेल में काट चुका अपराधी रेगुलर पैरोल के लिए अप्लाई कर सकते हैं। अपराधी का व्यव्हार अच्छा होना बहुत ज़रूरी है।। रेगुलर पैरोल एक साल में कम से कम एक महीने के लिए दी जा सकती है।   

पैरोल के लिए आवेदन कैसे करें – 1894 के जेल अधिनियम और 1990 के कैदी अधिनियम में पैरोल को लेकर प्रावधान दिए गए हैं। हालांकि अलग-अलग राज्यों में पैरोल को लेकर अपना एक अलग दिशा निर्देश सेट होता है।

अब बात करते हैं बेल की तो  जब कोई व्यक्ति किसी आपराधिक मामले में जेल जाता है तो उस शख्स को जेल से छुड़वाने के लिए न्यायालय या पुलिस से जो आदेश मिलता है, उस आदेश को बेल कहते हैं। वहीं सबसे जरूरी बात यह है कि बेल के लिए अप्लाई करने से पहले यह जानना बहुत ही आवश्यक होता है कि जिस व्यक्ति के लिए आप बेल अप्लाई करने जा रहे हैं उसने कैसा अपराध किया है। इसे लेकर जमानत का प्रावधान क्या है। 

आपको बता दें कि कानून के अनुसार क्राइम दो प्रकार के होते हैं। एक तो जमानती और दूसरा गैर जमानती।

जमानती अपराध में – आमतौर पर मारपीट और लापरवाही से वाहन चलाना जैसे मामले शामिल हैं। यह मामले इस तरह के है कि जिसमें 3 साल या उससे कम की सजा का प्रावधान है। जिसमें सीआरपीसी की धारा 436 के तहत जमानती अपराध में कोर्ट द्वारा जमानत दे दी जाती है। हालांकि कुछ परिस्थितियों में सीआरपीसी की धारा 159 के तहत थाने से ही जमानत दिए जाने का भी प्रावधान है। आपको बता दें कि गिरफ्तारी होने पर थाने का इंचार्ज बेल बांड भरवाने के बाद आरोपी को जमानत दे सकता है।

लेकिन कुछ ऐसे गंभीर अपराध है जिन्हें गैर जमानती अपराध माना जाता है। जिसमे अगर कोई व्यक्ति रेप, अपहरण, लूट, डकैती, हत्या, हत्या की कोशिश, गैर इरादतन हत्या और फिरौती के लिए अपहरण जैसे क्राइम करता है तो उसे बेल नहीं मिल सकती और इन अपराधों में अपराधी को खास तौर पर फांसी की सजा या उम्र कैद की सजा सुनाई जाती है, तो कोर्ट से भी इन अपराधों के लिए बेल नहीं मिलती।

बताते चलें सीआरपीसी में दो बेल के बारे में बताया गया है जिसमें पहला तो अग्रिम जमानत और दूसरा रेगुलर बेल। अग्रिम यानी एडवांस, अगर किसी व्यक्ति की किसी मामले में गिरफ्तारी हो सकती है तो गिरफ्तारी से बचने के लिए वह व्यक्ति सीआरपीसी की धारा 438 के तहत अग्रिम जमानत की अर्जी को कोर्ट में दाखिल करता है। अगर कोर्ट अग्रिम जमानत की इजाजत देता है तो अगले आदेश तक व्यक्ति को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता। वहीं सीआरपीसी की धारा 439 में रेगुलर बेल का भी प्रावधान है, जिसमे किसी आरोपी के खिलाफ ट्रायल कोर्ट में मामला पेंडिंग है तो वह आरोपी बेल के लिए अर्जी लगा सकता है।


Prakher Pandey
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