
पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट ने एक अंतरराष्ट्रीय बाल संरक्षण विवाद में निर्णायक भूमिका निभाते हुए नाबालिग बेटे की Custody उसकी ऑस्ट्रेलियाई मां को लौटाने का आदेश दिया है।
इस मामले में पिता ने बिना कानूनी अधिकार के बच्चे को भारत लाकर रखा था, जबकि ऑस्ट्रेलिया की फैमिली कोर्ट ने दोनों बच्चों की Custody मां को दी थी।
क्या था मामला?
एक ऑस्ट्रेलियाई नागरिक ने हाई कोर्ट में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका (Habeas Corpus) दाखिल कर अपने नाबालिग नाती को वापस दिलाने की अपील की थी। याचिकाकर्ता ने बताया कि उसकी बेटी और दामाद का तलाक हो चुका है और ऑस्ट्रेलिया की पारिवारिक अदालत ने आपसी सहमति से बेटे और बेटी की कस्टडी मां को दी थी।
हालांकि, तलाक के बाद पिता भारत आ गया और बेटे को यहीं अपने पास रख लिया, जो विदेशी न्यायालय के आदेश का स्पष्ट उल्लंघन है।
कोर्ट की कड़ी टिप्पणी
मामले की सुनवाई करते हुए जस्टिस राजेश भारद्वाज ने स्पष्ट किया कि—
“जो पक्ष अंतरराष्ट्रीय न्यायिक मर्यादा के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है, उसके पास बच्चे की Custody रहना न केवल अनुचित है, बल्कि विदेशी न्यायालयों के आदेशों की भी अवमानना है।”
कोर्ट ने कहा कि जब तक बच्चे के खिलाफ किसी प्रकार की हिंसा या खतरे का संकेत नहीं हो, तब तक उस देश की न्यायिक व्यवस्था का सम्मान किया जाना चाहिए जहां से आदेश पारित हुआ है।
क्यों है यह फैसला महत्वपूर्ण?
- यह निर्णय अंतरराष्ट्रीय कानूनों, विशेष रूप से बाल अभिरक्षा मामलों में हैग कन्वेंशन जैसे सिद्धांतों के सम्मान का उदाहरण बन गया है।
- इसने उन मामलों में स्पष्टता लाई है जब माता-पिता अलग-अलग देशों के निवासी होते हैं और बच्चे की Custody विवाद में होती है।
इस तरह का फैसला आने वाले समय में उन मामलों की गाइडलाइन बन सकता है जहां संप्रभुता और न्यायिक सहयोग में टकराव की स्थिति उत्पन्न होती है।
भारत में इस तरह के मामलों की स्थिति
भारत अभी तक हैग कन्वेंशन ऑन इंटरनेशनल चाइल्ड अबडक्शन का सदस्य नहीं है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट्स समय-समय पर विदेशी न्यायालयों के आदेशों को मान्यता देते आए हैं, खासकर जब बच्चों के हित सर्वोपरि हों।
यह मामला भी इसी सिलसिले की एक कड़ी है।
निष्कर्ष
हाई कोर्ट के इस फैसले से यह स्पष्ट हो गया है कि भारतीय न्यायालय अंतरराष्ट्रीय न्यायिक आदेशों का सम्मान करते हैं, बशर्ते कि वे भारतीय संविधान या सार्वजनिक नीति के खिलाफ न हों।
यह निर्णय न केवल न्यायिक अंतरराष्ट्रीय सहयोग का प्रतीक है, बल्कि बच्चों के सर्वोत्तम हितों को प्राथमिकता देने का भी उदाहरण है।
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