
Supreme Court decision on Advocacy:भारत की सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायिक सेवा में शामिल होने की इच्छा रखने वाले लाखों कानून स्नातकों के लिए एक महत्वपूर्ण और दूरगामी असर डालने वाला फैसला सुनाया है। कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि सिविल जज (जूनियर डिविजन) बनने के लिए कम से कम तीन साल तक वकील के तौर पर प्रैक्टिस करना अनिवार्य होगा।
यह फैसला न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस और न्यायमूर्ति संजय करोल की पीठ ने एक याचिका पर सुनवाई के दौरान सुनाया।
🔹 मामले की पृष्ठभूमि
Supreme Court decision on Advocacy:यह याचिका छत्तीसगढ़ के ज्यूडिशियल सर्विस रूल्स के एक प्रावधान को चुनौती देती थी जिसमें यह कहा गया था कि सिविल जज के पद के लिए आवेदन करने वाले व्यक्ति के पास वकालत का न्यूनतम तीन साल का अनुभव होना चाहिए।
याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि यह प्रावधान अनुच्छेद 14 और 16 का उल्लंघन करता है क्योंकि यह उन कानून स्नातकों के अवसरों को सीमित करता है जो सीधे एलएलबी करने के बाद परीक्षा देना चाहते हैं।
🔹 सुप्रीम कोर्ट की दलीलें
सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ़ सरकार के रुख का समर्थन करते हुए कहा:
“न्यायिक सेवा कोई केवल शैक्षणिक ज्ञान का क्षेत्र नहीं है, बल्कि इसमें व्यावहारिक अनुभव अत्यंत महत्वपूर्ण है। तीन साल की वकालत न केवल कानून की समझ को गहरा करती है, बल्कि एक न्यायाधीश बनने की मानसिक परिपक्वता भी लाती है।”
कोर्ट ने कहा कि यह प्रावधान मनमाना या भेदभावपूर्ण नहीं, बल्कि समुचित नीति निर्णय है, जिससे न्यायिक प्रणाली की गुणवत्ता बढ़ेगी।
🔹 न्यायिक सेवा बनाम प्रशासनिक परीक्षा
Supreme Court decision on Advocacy:कोर्ट ने यह भी रेखांकित किया कि ज्यूडिशियल सर्विस की परीक्षा को सामान्य प्रशासनिक सेवाओं की परीक्षा की तरह नहीं देखा जाना चाहिए। इसमें मूलभूत कानूनी अनुभव और कोर्ट प्रक्रिया की समझ आवश्यक है।
🔹 दूसरे राज्यों पर प्रभाव
Supreme Court decision on Advocacy :भारत में कई राज्य जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश और दिल्ली सिविल जज के लिए प्रत्यक्ष प्रवेश की व्यवस्था रखते हैं, जिसमें कोई भी कानून स्नातक (एलएलबी पास) व्यक्ति आवेदन कर सकता है। छत्तीसगढ़ का मॉडल इससे भिन्न है।
अब इस फैसले के बाद संभावना है कि अन्य राज्य भी वकालत के न्यूनतम अनुभव को अनिवार्य बना सकते हैं।
🔹 बार काउंसिल ऑफ इंडिया और शिक्षाविदों की राय
Supreme Court decision on Advocacy:बार काउंसिल ऑफ इंडिया पहले भी यह सुझाव दे चुका है कि कानून की पढ़ाई के तुरंत बाद जज नियुक्त करना व्यवहारिक नहीं है। CJI संजीव खन्ना ने भी एक बार कहा था:
“किसी भी न्यायिक अधिकारी में कानूनी समझ, व्यावहारिक सूझबूझ और संवेदनशीलता अनुभव के साथ ही आती है।”
वहीं कुछ शिक्षाविदों का तर्क है कि यह फैसला प्रतियोगी छात्रों के लिए नई चुनौतियाँ खड़ी कर सकता है, खासकर ग्रामीण पृष्ठभूमि से आने वालों के लिए, जिन्हें वकालत के शुरुआती वर्षों में आय की समस्या होती है।
🔹 छात्रों और कोचिंग संस्थानों पर असर
- अब लॉ ग्रेजुएट्स को ज्यूडिशियल सर्विस की तैयारी के साथ-साथ प्रैक्टिस भी करनी होगी।
- कोचिंग इंडस्ट्री में बदलाव संभव है — अब पाठ्यक्रम को कोर्ट प्रैक्टिस से जोड़ने की जरूरत पड़ेगी।
- छात्रों की योजना और करियर टाइमलाइन पर असर पड़ सकता है — जज बनने की राह तीन साल लंबी हो गई है।
🔹 निष्कर्ष
Supreme Court decision on Advocacy:सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय न्यायिक सेवा की गुणवत्ता सुधारने की दिशा में अहम कदम है। जहां एक ओर यह कानून के छात्रों के लिए नई बाधाएं उत्पन्न करता है, वहीं दूसरी ओर यह सुनिश्चित करता है कि न्यायिक पदों पर वे ही लोग आएं जो कानून की किताबों के साथ-साथ कोर्ट की गलियों से भी परिचित हों।
अब देखना यह होगा कि अन्य राज्यों की न्यायिक सेवा आयोग इस फैसले से प्रेरित होकर अपने नियमों में संशोधन करते हैं या नहीं।
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