Monday, June 2, 2025

Family Court:इलाहाबाद High Court ने जताई चिंता, “तारीख पर तारीख” से जूझ रही महिलाएं, Supreme Court के आदेशों की हो रही अवहेलना

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Family Court

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण टिप्पणी में Family Court में भरण-पोषण मामलों में हो रही अनावश्यक देरी पर गंभीर चिंता जताई है। अदालत ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि अगर संविधान की शपथ लेकर बैठे न्यायाधीश ही सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अवहेलना करते हैं, तो न्यायिक व्यवस्था का भविष्य संकट में पड़ सकता है।

यह टिप्पणी एक ऐसे मामले की सुनवाई के दौरान आई, जिसमें महिला को वर्षों से भरण-पोषण की राशि नहीं मिल पाई थी क्योंकि मामला “तारीख पर तारीख” में फंसा रहा।


सुप्रीम कोर्ट के आदेश और उनकी अनदेखी

Family Court:सुप्रीम कोर्ट ने कई बार निर्देशित किया है कि भरण-पोषण मामलों का निपटारा प्राथमिकता के आधार पर और तय समयसीमा में किया जाए। विशेषकर Rajnesh v. Neha (2020) जैसे मामलों में शीर्ष अदालत ने भरण-पोषण की स्पष्ट गाइडलाइंस दी थीं, जिनमें यह निर्देश भी शामिल था कि:

  • आवेदन मिलने के 60 दिनों के भीतर अंतरिम भरण-पोषण का आदेश दिया जाए।
  • मुख्य याचिका का निपटारा एक वर्ष के अंदर किया जाए।

Family Court:इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इसी संदर्भ में कहा कि जब सुप्रीम कोर्ट ने समयसीमा तय कर दी है, तब भी न्यायालयों की सुस्ती न्यायिक गरिमा पर प्रश्नचिह्न लगाती है।


महिलाओं के गरिमामयी जीवन पर असर

Family Court:न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि ऐसी देरी महिलाओं के “गरिमामयी जीवन जीने के मौलिक अधिकार” का हनन है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत हर नागरिक को गरिमा के साथ जीवन जीने का अधिकार है, और जब कोई महिला अपने कानूनी अधिकारों के लिए वर्षों तक कोर्ट की चौखट पर खड़ी रहती है, तो यह उस मौलिक अधिकार की सीधी अवहेलना है।


न्यायिक प्रणाली की जवाबदेही जरूरी

हाईकोर्ट की टिप्पणी में यह सवाल भी निहित है कि क्या Faimly Court शीर्ष अदालत के आदेशों को गंभीरता से ले रही हैं? यदि नहीं, तो यह न केवल न्यायिक असफलता है, बल्कि संवैधानिक कर्तव्यों की भी अवहेलना है।

कोर्ट ने कहा कि जब एक पक्ष पहले से ही आर्थिक और मानसिक पीड़ा से जूझ रहा हो, तब मुकदमे में देरी न्याय नहीं बल्कि अन्याय बन जाती है।


क्या कहती हैं पीड़ित महिलाएं?

कई महिलाओं ने बताया कि वे वर्षों से न्याय के इंतजार में हैं। एक महिला, जिसका मामला 2018 से लंबित है, ने कहा:

“हर तारीख को लगता है कि अब फैसला होगा, लेकिन फिर अगली तारीख दे दी जाती है। वकील के फीस और रोज़मर्रा की जरूरतें पूरी करना मुश्किल हो गया है।”


समाधान क्या है?

विशेषज्ञों का मानना है कि न्यायालयों को सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी भरण-पोषण गाइडलाइंस को हर स्तर पर लागू करना चाहिए। इसके अलावा:

  • फास्ट ट्रैक कोर्ट्स की संख्या बढ़ाई जाए
  • अदालतों में डिजिटल फाइलिंग और सुनवाई को प्रोत्साहित किया जाए
  • न्यायिक अधिकारियों को नियमित प्रशिक्षण दिया जाए ताकि वे शीर्ष अदालत के आदेशों की जानकारी और अनुपालन कर सकें

निष्कर्ष

Family Court:इलाहाबाद हाईकोर्ट की यह टिप्पणी न केवल कानूनी प्रक्रिया की देरी पर सवाल उठाती है, बल्कि न्यायपालिका की आत्ममूल्यांकन की आवश्यकता को भी रेखांकित करती है। अगर न्यायालय स्वयं संविधान और सुप्रीम कोर्ट की मर्यादाओं को नहीं मानेंगे, तो पीड़ितों के लिए न्याय केवल एक सपना बनकर रह जाएगा।


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