
सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को इलाहाबाद हाईकोर्ट के Justice Yashwant Varma के सरकारी आवास से कथित अवैध नकदी मिलने के आरोपों को लेकर दाखिल की गई FIR दर्ज करने की याचिका को खारिज कर दिया। मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई और जस्टिस एजी मसीह की बेंच ने याचिका को संविधान के अनुच्छेद 124(4) और न्यायिक जवाबदेही की प्रक्रिया का हवाला देते हुए सुनवाई के योग्य नहीं माना।
याचिका में क्या कहा गया था?
यह याचिका अधिवक्ता मैथ्यूज जे. नेडुमपारा द्वारा दाखिल की गई थी। उन्होंने दावा किया कि Justice Yashwant Varma के दिल्ली स्थित सरकारी आवास पर नकद रकम मिली है, जिसकी स्वतंत्र जांच और प्राथमिकी दर्ज की जानी चाहिए।
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने Justice Yashwant Varma की याचिका को खारिज करते हुए सख्त लहजे में कहा,
“यह कोर्ट इस स्तर पर कोई कार्रवाई नहीं कर सकता। पहले राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के समक्ष शिकायत करें। यदि वे इसे आवश्यक समझें तो वे आगे की प्रक्रिया आरंभ कर सकते हैं।”
क्या है संवैधानिक प्रक्रिया?
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 124(4) के तहत Supreme Court और High Court के न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया केवल संसद द्वारा महाभियोग के माध्यम से ही की जा सकती है। इसके लिए राष्ट्रपति की अनुशंसा और संसद में दो-तिहाई बहुमत आवश्यक होता है।
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि Justice Yashwant Varma के खिलाफ FIR दर्ज करना सीधा न्यायिक स्वतंत्रता में हस्तक्षेप होगा और इससे संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन होगा।
याचिकाकर्ता की दलील और कोर्ट की प्रतिक्रिया
नेडुमपारा ने तर्क दिया कि Justice Yashwant Varma पर भ्रष्टाचार के आरोप गंभीर हैं और उनकी तत्काल जांच होनी चाहिए। इस पर बेंच ने कहा:
“संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों के खिलाफ कार्रवाई का एक निश्चित तरीका है। आप चाहें तो लोकसभा अध्यक्ष या राष्ट्रपति से संपर्क कर सकते हैं।”
इस मामले का व्यापक संदर्भ
इस याचिका और सुप्रीम कोर्ट की प्रतिक्रिया का अर्थ न्यायपालिका की स्वतंत्रता की रक्षा और संवैधानिक प्रक्रिया के सम्मान में देखा जा रहा है। अगर कोर्ट इस मामले में FIR की अनुमति दे देता, तो यह भविष्य में न्यायाधीशों के खिलाफ मनमाने ढंग से आपराधिक मामलों की शुरुआत का रास्ता खोल सकता था।
सुप्रीम कोर्ट का संदेश: जल्दबाज़ी नहीं, संवैधानिक संतुलन ज़रूरी
यह आदेश न केवल संवैधानिक संतुलन का प्रतीक है, बल्कि न्यायपालिका की गरिमा और स्वतंत्रता की रक्षा का भी संकेत देता है। सुप्रीम कोर्ट का यह रुख बताता है कि न्यायपालिका के भीतर आंतरिक जवाबदेही तंत्र मजबूत है, और किसी भी आरोप की जांच की प्रक्रिया उचित चैनल से ही संभव है।
इलाहाबाद हाईकोर्ट बार एसोसिएशन ट्रांसफर के विरोध में 23 मार्च को जस्टिस यशवंत वर्मा को वापस इलाहाबाद भेजने की बात का इलाहाबाद हाईकोर्ट बार एसोसिएशन ने विरोध किया था। बार ने जनरल हाउस मीटिंग बुलाई थी, जिसमें जस्टिस वर्मा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने की मांग का प्रस्ताव पारित किया गया था।साथ ही मामले की जांच ED और CBI से कराने की मांग का भी प्रस्ताव पारित किया गया था। प्रस्ताव की कॉपी सुप्रीम कोर्ट CJI को भी भेजी गई थी। 23 मार्च को ही जस्टिस वर्मा से दिल्ली हाईकोर्ट ने कार्यभार वापस ले लिया था।एसोसिएशन के प्रतिनिधियों ने 27 मार्च को CJI संजीव खन्ना और कॉलेजियम के सदस्यों से मिलकर ट्रांसफर पर पुनर्विचार करने की मांग की थी।
जस्टिस यशवंत वर्मा इलाहाबाद हाईकोर्ट में ही बतौर जज नियुक्त हुए थे। इसके बाद अक्टूबर 2021 में उनका दिल्ली हाईकोर्ट ट्रांसफर कर दिया गया था।
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