Supreme Court ने देश के विभिन्न हाई कोर्ट में जजों की कार्य संस्कृति पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं। जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस एन. कोटेश्वर सिंह की पीठ ने स्पष्ट रूप से कहा कि उन्हें हाई कोर्ट के कई जजों के खिलाफ शिकायतें मिल रही हैं, जिनमें अवकाश लेने की अधिकता और कामकाज की कम गुणवत्ता शामिल हैं।
पीठ ने कहा,
“अब यह देखने का समय है कि उन पर कितना खर्च हो रहा है और वे कितना काम कर रहे हैं।”
इस टिप्पणी के बाद हाई कोर्ट जजों के प्रदर्शन की निगरानी और ऑडिट की मांग ने न्यायिक व्यवस्था में पारदर्शिता और जवाबदेही को लेकर एक नई बहस छेड़ दी है।
क्या बोले सुप्रीम कोर्ट के जज?
पीठ ने कहा कि अदालत को लगातार शिकायतें मिल रही हैं कि कुछ हाई कोर्ट के जज बार-बार अवकाश पर जाते हैं और उनका कोर्ट में बैठने का समय भी अपेक्षाकृत कम होता है। जस्टिस सूर्यकांत ने सवाल उठाया कि जब आम जनता न्याय के लिए वर्षों तक प्रतीक्षा करती है, तब क्या जजों को बार-बार छुट्टियाँ लेना शोभा देता है?
उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि
“कोर्ट का उद्देश्य किसी व्यक्ति विशेष पर टिप्पणी करना नहीं है, बल्कि सिस्टम की जवाबदेही तय करना है।”
ऑडिट की मांग: क्या होगा इसका असर?
सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी केवल एक मौखिक आलोचना नहीं है। कोर्ट ने यह संकेत भी दिया कि अब समय आ गया है कि हाई कोर्ट जजों के कामकाज का ऑडिट किया जाए।
इसमें शामिल हो सकते हैं:
- कोर्ट में बैठने के घंटे
- सुने गए मामलों की संख्या
- लिखे गए फैसलों की गुणवत्ता और संख्या
- अवकाश की आवृत्ति और अवधि
यदि यह ऑडिट प्रक्रिया आगे बढ़ती है, तो यह पहली बार होगा जब देश की न्यायपालिका के भीतर इस स्तर की पारदर्शिता लाई जाएगी।
क्यों है यह टिप्पणी महत्वपूर्ण?
भारत की न्यायिक व्यवस्था पहले से ही मामलों की भारी लंबितता से जूझ रही है। राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (NJDG) के अनुसार, देशभर की हाई कोर्ट्स में लगभग 60 लाख से अधिक मामले लंबित हैं। ऐसे में अगर न्यायधीश नियमित रूप से ब्रेक लेते रहें और उनकी कार्यदक्षता पर ध्यान न दिया जाए, तो न्यायिक प्रक्रिया और अधिक बाधित होगी।
बार काउंसिल और वरिष्ठ वकीलों की प्रतिक्रिया
इस टिप्पणी के बाद बार काउंसिल ऑफ इंडिया (BCI) और कुछ वरिष्ठ वकीलों ने इस मुद्दे पर मिश्रित प्रतिक्रिया दी है।
वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कहा,
“न्यायपालिका में जवाबदेही बेहद ज़रूरी है, लेकिन यह ध्यान रखना भी ज़रूरी है कि जजों पर कार्य का दबाव भी असाधारण होता है।”
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने भी इस पर सहमति जताते हुए कहा कि अगर यह पहल उद्देश्यपूर्ण और आंकड़ों पर आधारित हो, तो इससे न्यायपालिका की साख और कार्यदक्षता दोनों में सुधार होगा।
क्या कहती है संविधान और न्यायिक स्वतंत्रता?
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी तार्किक और डेटा आधारित निगरानी के पक्ष में है, लेकिन इसके समानांतर एक चिंता भी है—न्यायिक स्वतंत्रता।
अनुच्छेद 50 और अनुच्छेद 124 से 147 तक संविधान में न्यायपालिका को कार्यपालिका से स्वतंत्र रखने की व्यवस्था की गई है। ऐसे में क्या कार्यप्रदर्शन ऑडिट से न्यायिक स्वतंत्रता पर खतरा नहीं होगा?
इस पर पूर्व जज मदन लोकुर की राय है,
“जवाबदेही और स्वतंत्रता एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं। सही सिस्टम से दोनों को संतुलित किया जा सकता है।”
भविष्य की राह: टेक्नोलॉजी और डेटा से निगरानी?
विशेषज्ञों का मानना है कि अगर जजों की कार्यप्रदर्शन का मूल्यांकन करना है, तो उसे डेटा-ड्रिवन, ऑब्जेक्टिव और स्वतंत्र निकाय द्वारा संचालित किया जाना चाहिए। इसके लिए:
- राष्ट्रीय स्तर पर एक न्यायिक ऑब्जर्वेशन पोर्टल बनाया जा सकता है
- प्रत्येक जज के कोर्ट में बैठने का डेटा स्वतः रिकॉर्ड किया जा सकता है
- आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस आधारित ट्रैकर से वर्कलोड की निगरानी की जा सकती है
निष्कर्ष: जवाबदेही बनाम अधिकार—नया संतुलन जरूरी
सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी सामान्य नहीं है। यह एक संकेत है कि न्यायपालिका को भी अब पारदर्शिता और जवाबदेही के युग में प्रवेश करना होगा। जब आम आदमी से हर स्तर पर पारदर्शिता की अपेक्षा की जाती है, तो न्यायपालिका भी इससे अछूती नहीं रह सकती।
हालांकि, यह ज़रूरी है कि इस प्रक्रिया में न्यायिक स्वतंत्रता, गरिमा और निष्पक्षता से कोई समझौता न हो।
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