
भारत की सर्वोच्च अदालत में न्यायिक प्रतिभा की पहचान जातिगत पृष्ठभूमि से नहीं, बल्कि संवैधानिक मूल्यों और कानून की समझ से होती है। ऐसे में Justice भूषण रमणलाल गवई (B.R. Gavai) का सुप्रीम कोर्ट में स्थान केवल एक नियुक्ति नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय की दिशा में एक सशक्त प्रतीक है।
जस्टिस बी.आर. गवई: एक प्रोफाइल
- जन्म: 24 नवंबर 1961, महाराष्ट्र के अमरावती में
- पृष्ठभूमि: बाबासाहेब अंबेडकर के विचारों से प्रभावित परिवार
- कानूनी करियर: 1985 में बॉम्बे हाई कोर्ट में वकालत की शुरुआत
- न्यायिक पदों:
- 2003 में बॉम्बे हाई कोर्ट के जज
- 2019 में सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त
- 2025 में संभावित भारत के अगले मुख्य न्यायाधीश (CJI)
जस्टिस गवई, सुप्रीम कोर्ट में आने वाले तीसरे दलित न्यायाधीश हैं, और अगर सब कुछ सामान्य रहा तो वे भारत के पहले दलित CJI बन सकते हैं।
सुप्रीम कोर्ट में अब तक कितने दलित जज?
भारत की आज़ादी के 75 वर्षों में सुप्रीम कोर्ट में लगभग 275 से अधिक न्यायाधीशों की नियुक्ति हुई है, लेकिन उनमें से केवल चार न्यायाधीश ही दलित समुदाय से रहे हैं:
- जस्टिस क.र. रामास्वामी (1989–1994)
- जस्टिस ए.कु. पटनायक – विवाद है कि उनका जातिगत वर्ग दलित था या नहीं
- जस्टिस कुरीयन जोसेफ – भले ही धर्म ईसाई हो, पर जातिगत विश्लेषण में अस्पष्ट
- जस्टिस बी.आर. गवई – स्पष्ट रूप से दलित समुदाय से, और वर्तमान में सर्वोच्च पद के निकट
यह आंकड़ा भारत जैसे सामाजिक रूप से विविध देश के लिए हैरान करने वाला और चिंतन योग्य है।
सामाजिक समावेशिता का प्रतीक
जस्टिस गवई की नियुक्ति पर CJI रमना ने कहा था, “यह प्रतिनिधित्व महज़ प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि न्यायपालिका में बदलाव की शुरुआत है।” वहीं पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने उनके बारे में कहा, “एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में जब वंचित वर्ग का व्यक्ति सर्वोच्च पदों तक पहुंचता है, तो पूरे समाज को आश्वस्ति मिलती है।”
क्यों अहम है जस्टिस गवई का CJI बनना?
- यह संविधान की भावना के अनुरूप है जिसमें समानता और सामाजिक न्याय का वादा किया गया है।
- यह वंचित वर्गों में विश्वास पैदा करेगा कि न्यायपालिका उनके लिए भी खुली है।
- इससे आने वाले समय में न्यायिक नियुक्तियों में विविधता को बढ़ावा मिलेगा।
जातिगत प्रतिनिधित्व और न्यायिक निष्पक्षता
कुछ आलोचक जाति आधारित चर्चा को “राजनीतिक” बताते हैं, लेकिन संवैधानिक विशेषज्ञों का मानना है कि प्रतिनिधित्व का मतलब न्याय की गुणवत्ता से समझौता नहीं, बल्कि न्याय तक पहुँच की गारंटी है।
निष्कर्ष: एक विरासत बनते हुए
जस्टिस गवई केवल एक जज नहीं हैं—वह उस विरासत का हिस्सा हैं जो डॉ. अंबेडकर ने संविधान निर्माण के समय कल्पना की थी। उनका मुख्य न्यायाधीश बनना, यदि होता है, तो वह केवल न्यायिक प्रक्रिया में नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना में भी एक ऐतिहासिक मोड़ होगा।
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