जाकिया जाफरी फ़ैसला : “क्या न्याय कभी खत्म न होने वाली अंधी गली की तरफ जाता दिख रहा है” 

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उच्चतम न्यायालय ने जाकिया जाफरी की याचिका को खारिज कर नानावती आयोग की रिपोर्ट पर मुहर लगा दी है। आपाधापी के दौर में, सूचनाओं के कुकरहाव में अधिकांश नानावती आयोग को या तो भूल चुके होंगे या फिर उन्हें इस आयोग की बाबत कोई जानकारी होगी ही नहीं। जाकिया जाफरी की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से हम असहमत तो हो ही सकते हैं। यह हमारा लोकतांत्रिक अधिकार है। तो इस अधिकार का लाभ उठाते हुए इस ऐतिहासिक फैसले पर चर्चा करने और इसके बहाने 2002 के गोधरा कांड और उस कांड की प्रतिक्रिया में हुए सांप्रदायिक दंगों से गुजरते हुए इस पर भी चर्चा की जा सकती है, कि जानी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के क्या दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। 

File Photo- Supreme Court of India

पहले बात नानावती आयोग की जिसे मार्च 2002 में गुजरात सरकार ने गोधरा ट्रेन कांड की जांच के लिए नियुक्त किया था। पहले एक एकल सदस्यीय आयोग बनाया गया था जिसकी कमान गुजरात के एक पूर्व न्यायाधीश के जी शाह को सौंपी गई थी। न्यायमूर्ति शाह को गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का करीबी माना जाता था इसलिए मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने उन्हें इस आयोग की कमान सौंपे जाने पर ऐतराज जताया जिस चलते सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जी टी नानावती को इस आयोग को कमान दे दी गई थी। सितंबर, 2008 में नानावती आयोग ने अपनी पहली रिपोर्ट गुजरात सरकार को सौंपी। इस रिपोर्ट में साबरमती एक्सप्रेस ट्रेन के 5-6 डिब्बे में लगी आग को सुनियोजित षड्यंत्र करार दिया गया। 

File Photo- Late. Justice G T Nanavati

स्मरण रहे 27 फरवरी, 2002 के दिन अयोध्या से राम भक्तों को लेकर वापस लौट रही ट्रेन को गोधरा रेलवे स्टेशन में रोक कर उसमें आग लगा दी गई थी। इस नृशंस हत्याकांड में 59 लोग जिंदा जला दिए गए थे। जांच आयोग ने अपनी रिपोर्ट में स्थानीय मुस्लिमों को इस नृशंस अग्निकांड के लिए जिम्मेवार माना थां। आयोग ने अपनी इस पहली रिपोर्ट में इस अग्निकांड के लिए तत्कालीन गुजरात सरकार को पूरी तरह क्लीन चिट देने का काम भी किया था। मूल रूप से इस आयोग का कार्यक्षेत्र साबरमती एक्सप्रेस में लगी आग के कारणों की जांच करना मात्र था लेकिन वर्ष 2004 में केंद्र में यूपीए सरकार के गठन बाद इस आयोग के कार्यक्षेत्र को तत्कालीन गुजरात सरकार ने विस्तार हुए इसमें इस अग्निकांड के बाद पूरे गुजरात में हुए साम्प्रदायिक दंगों की जांच को भी शामिल कर दिया था। तब यह बात जोर-शोर से उठी थी कि ऐसा कदम तत्कालीन गुजरात सरकार ने इस आशंका के चलते उठाया है कि केंद्र सरकार एक अलग जांच आयोग इस पूरे प्रकरण पर बैठा सकती है। 

यहां से समझा जाना जरूरी है कि जांच आयोग अधिनियम, 1957 के अनुसार एक ही मामले में दो आयोग नहीं बनाए जा सकते हैं। यह भी जानना जरूरी है कि इस जांच आयोग को अपनी जांच तीन महीनों में पूरी करने को कहा गया था लेकिन 24 बार इसका समय बढ़ाया और इसकी अंतिम रिपोर्ट (भाग-दो) 31 अक्टूबर, 2014 को सौंपी गई। अपनी दूसरी रिपोर्ट में इस आयोग ने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी एवं उनके मंत्रिमंडल के सदस्यों व गुजरात पुलिस को सभी आरोपों से बरी करते हुए कहा था कि, ‘किसी भी प्रकार का कोई सबूत नहीं मिला है जिससे ऐसा प्रमाणित हो कि गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री मोदी अथवा उनके मंत्रिमंडल के सदस्यों व गुजरात पुलिस के अधिकारियों का गोधरा कांड अथवा उसके बाद हुए दंगों के पीड़ितों को सुरक्षा एवं पुनर्वास न दिए जाने में कोई संलिप्तता रही हो’। आयोग ने अपनी फाइनल रिपोर्ट अक्टूबर 2014 में गुजरात सरकार को सौंपी थी। 24 जून, 2022 को गुजरात दंगों से जुड़ी एक याचिका को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में एक तरह से नानावती आयोग की रिपोर्ट को सही करार देकर हाल-फिलहाल के लिए इस मुद्दे को समाप्त कर डाला है। 

File Photo- Godhara Train Burning

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने मुझे ‘बिकलिस बानो’, ‘बेस्ट बेकरी’ और ‘नरोदा पाटिया’ की याद दिला दी। हालांकि उच्चतम न्यायालय ने 2002 के दंगों में तत्कालीन सरकार की प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष भूमिका और सरकारी मशीनरी पर दंगाइयों को संरक्षण देने के आरोपों को पूरी तरह नकारते हुए मामले का पटाक्षेप कर दिया है लेकिन कुछ प्रश्न अभी भी अनुतरित हैं। वड़ोदरा के हनुमान टेकरी इलाके में स्थित एक बेकरी में एक मार्च, 2002 में आग लगा दी गई थी। इसे ‘बेस्ट बेकरी केस’ कहा जाता है। इस अग्निकांड में बेकरी के मालिक शेख परिवार के सदस्यों समेत 14 लोग जिंदा जला दिए गए थे। मरने वालों में ग्यारह मुसलमान और तीन हिंदू शामिल थे। शेख परिवार की एक सदस्य जाहिरा शेख इस अग्निकांड की गवाह थी। उसकी शिकायत पर दर्ज मामले की सुनवाई वड़ोदरा की जिला अदालत की फास्ट ट्रैक कोर्ट में हुई थी। शिकायतकर्ता जाहिरा शेख और कई अन्य गवाह अदालत में अपने बयान से पलट गए जिस चलते सभी आरोपियों को जून, 2003 में बरी कर दिया गया था। 

तब मीडिया और मानवाधिकार संगठनों ने गुजरात सरकार पर, विशेषकर सत्ताधारी दल भाजपा पर गवाहों को डराने-धमकाने का आरोप लगाया था। स्वयं जाहिरा शेख और उनकी मां ने मीडिया के समक्ष कहा था कि उन्हें जान से मार दिए जाने की धमकी दी गई जिस चलते उन्होंने अपना बयान बदल दिया था। मामला राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से होते हुए सुप्रीम कोर्ट तक जा पहुंचा। 2004 में इस मामले की दोबारा सुनवाई गुजरात से बाहर महाराष्ट्र में कराया जाने का आदेश सुप्रीम कोर्ट ने दिया था। इस आदेश को देने वाले न्यायमूर्ति दोराईस्वामी राजू एवं न्यायमूर्ति अजीत पसायत ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की थी। सुप्रीम कोर्ट के जाकिया जाफरी केस पर आए निर्णय की बरअक्स इस टिप्पणी को परखिए- यदि सरसरी तौर पर ही इस मुकदमें के कागजातों को देखा जाए तो यह स्पष्ट महसूस होता है कि न्याय प्रक्रिया को धोखा दिया जा रहा था और उसका दुरुपयोग, उसके साथ खिलवाड़ और छल पूर्व उसे विकृत किया गया है। सच का पता लगाने और दोषियों को दण्डित करने के उद्देश्य के बिना इस मामले की जांच की गई।’ अपने इसी निर्णय में आगे तत्कालीन गुजरात सरकार पर बेहद कठोर और तल्ख टिप्पणी करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था- जिन पर जान और माल की रक्षा करने और जांच को निष्पक्ष कराए जाने की जिम्मेवारी है, वे ऐसा करने के लिए खास चिंतित नजर नहीं आते हैं। बड़ी तादात में लोगों की जान चली गई। आरोपी व्यक्ति वास्तव में हमलावर है या नहीं, यह केवल एक निष्पक्ष जांच से ही सामने आ सकता था। आधुनिक दौर के ‘नीरोस’ तब कहीं और देख रहे थे जब बेस्ट बेकरी और मासूम बच्चे एवं महिलाएं जिंदा जलाई जा रही थीं। वे शायद तब विचार कर रहे थे कि कैसे इन अपराधियों को बचाया जाए। जब बाड़ ही फसल को खाने लगती है तो कानून-व्यवस्था सच्चाई और न्याय का बचना असंभव हो जाता है।’

सुप्रीम कोर्ट की यह तल्ख टिप्पणी स्पष्ट इशारा करती है कि इन दंगों और दंगाइयों को सत्ता की शह और संरक्षण प्राप्त था। अब लेकिन जाकिया जाफरी प्रकरण पर आए सुप्रीम कोर्ट के ही ताजा निर्णय ने ऐसी किसी शह और संरक्षण को सिरे से नकार दिया है। इससे इस बात पर भी शंका उठती है कि बेस्ट बेकरी मामले में सही तरीके से जांच नहीं किए जाने की जो बात 2004 में सुप्रीम कोर्ट ने कही थी वह क्या गलत तथ्यों पर आधारित थी? क्या बेस्ट बेरी केस की मुंबई में हुई सुनवाई बाद नौ आरोपियों को दिया गया आजीवन कारावास त्रुटिपूर्ण था? इस मामले की सुनवाई के दौरान सोशल एक्टिविस्ट तीस्ता सीतलवाड़ की भूमिका पर गंभीर सवाल भी उठे थे। सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस मामले के लिए बनाई एक कमेटी ने जाहिरा शेख को ‘Self condemned Liar’ (स्वयं निंदित झूठा) करार दिया था लेकिन तीस्ता पर जाहिरा को भड़काने के आरोपों से बरी कर दिया था। क्या तीस्ता को तब क्लीन चिट दिया जाना त्रुटिपूर्ण था? 

File Photo- Teesta Setalvad

बेस्ट बेकरी हत्याकांड से कई गुना लोहमर्षक नरोदा पाटिया कांड है जिसमें 97 मुसलमानों को जिंदा जला दिया गया था। इस मामले में माया कोडनानी मुख्य अभियुक्त थी जिसे अहमदाबाद की एक विशेष अदालत की जज ज्योत्सना याग्निक ने ‘हिंसा की सरगना’ करार देते हुए 28 बरस की सजा 2012 में सुनाई थी। कोडनानी को उस पर लगे गंभीर आरोप और मुकदमें के दौरान ही 2007 में मोदी सरकार में महिला एवं बाल कल्याण मंत्री बनाया गया था। इस पूरे कांड में मुस्लिम बाहुल्य नरोदा पाटिया बस्ती में विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल से जुड़े लोगों का हमला, बड़े स्तर पर महिलाओं और बच्चियों संग बलात्कार एवं उन्हें जिंदा जलाए जाने की बात सामने आई थी। 2008 में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर इस हत्याकांड की जांच एक स्पेशल इंवेस्टिंगेशन टीम (एसआईटी) को सौंप दी गई जिसने भाजपा नेत्री माया कोडनानी और बजरंग दल के नेता बाबू बजरंगी को अपनी जांच में इस जघन्य हत्याकांड का दोषी पाया था। जज ज्योत्सना याग्निक ने अपने निर्णय में कहा था कि गुजरात की जांच एजेंसियों ने माया कोडनानी को हरसंभव बचाने का प्रयास किया। कोडनानी को मिली 28 बरस की सजा को हाईकोर्ट, गुजरात ने 2014 में रद्द कर दिया। प्रश्न उठता है कि जिस माया कोडनानी को मृत्यु दंड दिए जाने की पैरवी स्वयं नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली गुजरात सरकार ने अप्रैल, 2013 में की थी, क्या वह गलत तथ्यों पर आधारित थी? क्या जज ज्योत्सना याग्निक का कथन कि गुजरात की जांच एजेंसियों ने माया कोडनानी को हरसंभव बचाने का प्रयास किया गलत था? 

एक अन्य मामला भी काबिले-ए-गौर है। इन्हीं कौमी दंगों के समय एक उन्नीस बरस की गर्भवती महिला बिलकिस बानो संग ग्यारह लोगों ने बलात्कार किया। बकौल बिलकिस ये सभी ग्यारह वे लोग थे जिन्हें वो बचपन से जानती थी। बलात्कार के समय उसकी गोद में उसकी तीन बरस की बच्ची थी जिसको मार डाला गया था। उसके परिवार के 13 अन्य लोगों की भी हत्या कर दी गई थी। बानो को भी गुजरात पुलिस से न्याय नहीं मिला। लंबी लड़ाई के बाद यह केस भी गुजरात से बाहर सुना गया। 2008 में मुंबई की एक अदालत ने ग्यारह आरोपियों को बलात्कार और हत्या के लिए आजीवन कारावास की सजा सुनाई जिसे मुंबई हाई कोर्ट ने बरकरार रखा। निचली अदालत ने बिलकिस का मेडिकल करने वाले डॉक्टरों को संदेह का लाभ देते हुए छोड़ दिया था। हाईकोर्ट ने उन्हें भी सजा सुनाई। 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने बिलकिस को पचास लाख का मुआवजा और सरकारी नौकरी दिए जाने का आदेश गुजरात सरकार को दिया। अब बात उच्चतम न्यायालय के ताजातरीन फैसले की।

सुप्रीम कोर्ट ने जाकिया जाफरी की उस याचिका को खारिज कर दिया है जिसमें उन्होंने अपने पति अहसान जाफरी, जो लोकसभा के सदस्य रह चुके थे, कि अहमदाबाद में 2002 के दंगों के दौरान गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। इसे गुलमर्ग सोसाइटी केस कहा गया। इस मामले की जांच भी गुजरात पुलिस से हटाकर सुप्रीम कोर्ट की गठित एसआईटी ने की। हत्या के आरोप में 11 को आजीवन कारावास, एक को 10 साल का कारावास और 12 को सात साल की सजा 2016 में सुनाई गई। एहसान जाफरी की पत्नी जाकिया का आरोप है कि इस दंगों को तत्कालीन गुजरात सरकार और पुलिस की पूरी शह थी। उनके इस आरोप को सुप्रीम कोर्ट ने पूरी तरह खारिज करते हुए गुजरात की तत्कालीन राज्य सरकार और राज्य की जांच एजेंसियों को पूरी तरह बेदाग बताते हुए कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और तत्कालीन राज्य सरकार के खिलाफ बयान दर्ज कराने वाले दो आईपीएस अधिकारियों की भूमिका और निष्ठा पर कड़ी टिप्पणी भी की है। इस आदेश ने भले ही एहसान जाफरी की हत्या चलते तत्कालीन राज्य सरकार और राज्य की जांच एजेंसियों को भारी राहत दी हो, इससे एक नया संकट उनके सामने अब खड़ा हो गया है जिन्हें हम मानवाधिकार कार्यकर्ता कहकर पुकारते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को आरामदाह वातानुकूलित कमरों में बैठकर जमीनी सच्चाई से दूर रहने वाले’ करार देकर एक तरह से उनकी तुलना उन जनआंदोलनकारियों संग कर डाली है जिन्हें कुछ अर्सा पहले ही प्रधानमंत्री मोदी ने ‘आंदोलनजीवी’ कहा था। सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय बाद जिस तेजी के साथ मानवाधिकार कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़, पूर्व आईपीएस श्रीकुमार और संजीव भट्ट को हिरासत में लिया गया है उससे लोकतंत्र के उन तमाम पैरोकारों के समक्ष भारी संकट आन खड़ा हुआ है जो जनहित याचिकाओं, आरटीआई, जनआंदोलनों इत्यादि के जरिए आमजन की आवाज उठाने का कार्य करते हैं। 

प्रश्न उठना लाजमी है कि एक जागरूक आम नागरिक को ऐसी परिस्थिति, ऐसे माहौल में क्या करना चाहिए? शायद कुछ ऐसी ही आशंका, ऐसे ही भविष्य को भांप बाबा तुलसी दास ने लिखा हो-सबसे भले विमूढ़ जिन्हें न व्यापै जगत गति।’

(लेखक साप्ताहिक संडे पोस्ट और प्रतिष्ठित साहित्यिक मासिक पाखी के संपादक हैं)

डिस्क्लेमर- ये लेखक के खुद के विचार हैं।

Varun Jauhari
Varun Jauhari

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