सीएम की कुर्सी, गठबंधन की राजनीति और नितीश कुमार

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साल 2012-2013 से बिहार में जिस राजनीतिक अस्थिरता की शुरुआत हुई थी, वह थमने का नाम नहीं ले रही है। राज्य में पिछले 10 सालों में यह छठवीं सरकार है। इतनी अस्थिरता के बीच भी केवल एक नाम स्थिर है। वह नाम नितीश कुमार है। नितीश कुमार ने भाजपा का साथ छोड़कर राजद के साथ सरकार का गठन किया है। 2020 विधानसभा चुनाव के बाद से ही राजनीतिक पंडित इस स्थिति का अंदेशा जता रहे थे।

10 अगस्त को बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में नितीश कुमार ने रिकार्ड आठवीं बार शपथ ली। भारत के राजनीतिक इतिहास में इतनी बार किसी भी मुख्यमंत्री ने शपथ नहीं ली है। पहली बार सन 2000 में केवल 7 दिनों के लिए मुख्यमंत्री बनने के बाद वह एनडीए और महगठबंधन के नेता के रूप में लगातार मुख्यमंत्री बनते रहे हैं। 2005 और 2010 में उन्होंने ने भाजपा के साथ गठबंधन की सरकार बनाई थी। 

2014 लोकसभा चुनाव से पूर्व नरेंद्र मोदी को एनडीए का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदार घोषित करने पर नितीश कुमार ने भाजपा के साथ गठबंधन तोड़ लिया और लालू यादव की पार्टी राजद की सहायता से मुख्यमंत्री बने रहे।

2015 विधानसभा चुनाव में जदयू, राजद और कांग्रेस एक साथ चुनाव मैदान में उतरे। महगठबंधन की जीत के बाद नितीश कुमार ने पांचवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। लालू यादव के बेटे तेजस्वी को उपमुख्यमंत्री और तेजप्रताप यादव को कैबिनेट मंत्री का पद मिला। 2017 में लालू यादव के परिवार पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाकर नितीश कुमार ने राजद से नाता तोड़ा और पुनः भाजपा के साथ लौट आए।

2020 का विधानसभा चुनाव भी जदयू और भाजपा ने एक साथ लड़ा लेकिन इस बार कहानी थोड़ी अलग रही। भाजपा के 74 और जदयू के 43 विधायक जीतकर सदन पहुंचे। विधानसभा में पहली बार भाजपा को जदयू से ज़्यादा सीटें मिली। बिहार की राजनीति को क़रीब से देखने वालों की माने तो जदयू की कम सीटें आने का प्रमुख कारण पूर्व केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा थी। तत्कालीन लोजपा अध्यक्ष चिराग पासवान द्वारा जदयू प्रत्याशियों के ख़िलाफ़ उम्मीदवार उतारने के निर्णय से जदयू को 18 से 20 सीटों पर सीधा नुक़सान हुआ। 

इस वजह से पहली बार बिहार में जदयू के मुक़ाबले भाजपा को ज़्यादा सीटें मिली और इसका प्रभाव मंत्रिमंडल के बंटवारे में भी दिखा। राज्य में अब तक सीनियर की भूमिका में रही पार्टी अब जूनियर बनने को मजबूर हुई। विधानसभा अध्यक्ष, दो उपमुख्यमंत्री सहित कुछ बड़े मंत्रालय भाजपा की झोली में गिरे।

राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार एनडीए गठबंधन में पहली फूट विधानसभा चुनाव के पूर्व ही पड़ गई थी। चुनाव प्रचार के दौरान अपने पोस्टरों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे का खुलकर इस्तेमाल करने और खुद को प्रधानमंत्री का हनुमान बताने वाले चिराग पासवान को लेकर भाजपा का नरम रुख़ जदयू को नागवार गुजरा। कई मौक़ों पर जदयू नेताओं ने खुलकर चिराग पासवान के पीछे भाजपा का हाथ बताया।

सरकार गठन के बाद सीएए-एनआरसी, यूनफ़ॉर्म सिविल कोड जैसे भाजपा के मुद्दों से जदयू को असहजता हुई। वहीं जातिगत जनगणना को लेकर जदयू और भाजपा कभी एकमत नहीं हो सके। जातिगत जनगणना सहित अन्य कई मुद्दों पर जदयू को राजद का साथ ज़रूर मिला। 

इस गठबंधन एक लिए आरसीपी सिंह का प्रकरण आख़िरी किल साबित हुई। कभी नितीश कुमार का उत्ताधिकारी कहे जाने वाले जदयू के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष आरसीपी सिंह की भाजपा से बढ़ती नज़दीकी पार्टी को पसंद नहीं आयी। गठबंधन तोड़ते हुए जदयू ने भाजपा पर महाराष्ट्र की तर्ज़ पर साज़िश रचने का आरोप लगाया। पार्टी नेताओं के अनुसार आरसीपी सिंह के सहारे भाजपा बिहार में भी शिंदे प्लान को लागू करने के फ़िराक़ में थी। 

इसी वजह से केंद्र सरकार में जदयू कोटे से मंत्री रहे आरसीपी सिंह को नितीश कुमार ने इस बार राज्यसभा नहीं भेजा। जून में आरसीपी सिंह और उनके क़रीबियों को पार्टी से बाहर भी निकाल दिया। इन लोगों में पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता आलोक रंजन भी शामिल थे।

इन्वेस्टरों के लिए आयोजित कार्यक्रम में भाग लेने के बाद दिल्ली से वापस पटना लौटे बिहार सरकार के पूर्व उद्योग मंत्री शाहनवाज़ हुसैन का बयान वायरल हो रहा है। अपने बयान में उन्होंने ने कहा है कि “मैं दिल्ली से फ़्लाइट में बैठा उद्योग मंत्री के रूप में और जब पटना उतरा तो पता चला सरकार ही बदल गई।” इस सियासी उठा-पठक के बीच भाजपा का अगला कदम क्या होगा इस पर सभी की निगाहें रहेंगी।

(यह लेखक के निजी विचार हैं)

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