” नेताओं को 5-स्टार होटलों की कैद से बाहर निकलकर कानून से जुड़ना होगा, तभी लोकतंत्र में विश्वास बढ़ेगा ” : विराग गुप्ता

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विराग गुप्ता

virag gupta

राजस्थान विधानसभा के स्पीकर ने सुप्रीम कोर्ट से अपनी याचिका वापस ले ली है। अगले कुछ दिनों में हॉर्स ट्रेडिंग और रिसॉर्ट पॉलिटिक्स का कारोबार यदि विफल हो गया तो न्यायिक जंग का नया दौर फिर से शुरू होगा। संविधान की दसवीं अनुसूची में दलबदल विरोधी कानून की धारा 7 के तहत अयोग्यता के मामलों पर, अदालत में सवाल नहीं उठाए जा सकते। लेकिन विधायकों की खेमेबंदी में जब स्पीकर ही पक्षकार बनकर सुप्रीम कोर्ट पहुंच जाएं, तो फिर संवैधानिक प्रावधानों की रक्षा कैसे होगी? कांग्रेस राज में नेहरू के दिनों से ही कैबिनेट प्रणाली की अवहेलना होने के साथ राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाने की शुरुआत हो गई थी।

इंदिरा राज में कठपुतली राज्यपाल और स्पीकर की नियुक्ति के साथ न्यायपालिका को नियंत्रित करने की अधोगामी परंपराओं की शुरुआत हुई। सत्ता के इस राजस्थानी मैच में तीन नए तरीकों से लोकतंत्र और संविधान को और भी कमजोर किया गया है। उत्साही स्पीकर ने सदन के बाहर कथित व्हिप के उल्लंघन के लिए सचिन पायलट गुट के विधायकों के खिलाफ तुरंत नोटिस जारी कर दिया। ऐसे मामलों में अंतरिम राहत की बजाय संवैधानिक बिंदुओं पर फैसला होता है।

लेकिन हाईकोर्ट ने ताबड़तोड़ सुनवाई करके यथास्थिति के आदेश से स्पीकर को निःशस्त्र कर दिया। स्पष्ट संवैधानिक प्रावधान और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों की नजीर के बावजूद, बहुमत वाली गहलोत सरकार की सिफारिश पर विधानसभा सत्र नहीं बुलाकर, राज्यपाल ने भी संवैधानिक अवमूल्यन की नई मिसाल कायम कर दी।

भाजपा के ऊपर कांग्रेस के विधायकों को तोड़ने का आरोप है तो गहलोत भी दूध के धुले नहीं हैं। बसपा के 6 विधायकों को वो पिछले साल कांग्रेस में ला चुके हैं। उप मुख्यमंत्री नाम का संविधान में कोई पद नहीं है। इसके बावजूद अपने ही मंत्री से मुख्यमंत्री की 1.5 वर्षों से चल रही संवादहीनता लोकतंत्र के लिए भयानक त्रासदी है। विधायकों की खरीद-फरोख्त में सभी दलों द्वारा अरबों-खरबों रुपए के निवेश से जाहिर है कि राजनीति सेवा की बजाय व्यापार का सबसे आकर्षक प्लेटफॉर्म है।

सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2006 के फैसले में इस प्रवृत्ति पर गहरी चिंता जाहिर की थी। इसके बावजूद पैसे के दम पर टिकट हासिल करने और खरीद फरोख्त से दल-बदल के लिए किसी भी नेता को अभी तक दंड नहीं मिला। दोनों पक्षों के नेताओं के खिलाफ पुलिस और सीबीआई की छापेमारी और अवैध टेलीफोन टैपिंग से जाहिर है कि आपराधिक मामलों में क़ानून की बजाय सत्तानशीनों के इशारों पर कार्रवाई शुरू और बंद होती है।

दोनों पक्षों के नेताओं की स्वीकारोक्ति के अनुसार दल बदलने वाले विधायकों की कीमत करोड़ों में है। तो फिर विधायकों की खरीद फरोख्त में शामिल दोनों पार्टियां अदालत के सामने न्याय और नैतिकता की दुहाई कैसे दे सकती हैं? बसपा की राजस्थान इकाई के 6 विधायकों ने कांग्रेस ज्वाइन कर ली, लेकिन इसे बसपा पार्टी का कांग्रेस में विलय कैसे माना जा सकता है? पायलट गुट के विधायकों के खिलाफ स्पीकर ने दल बदल विरोधी कानून की धारा 2 (1) (अ) के तहत जो नोटिस जारी किया है, उससे भी राजनीतिक दलों की सदस्यता, त्यागपत्र और निष्कासन की प्रक्रिया का अहम् मुद्दा सामने आता है।

विधायक और सांसदों को दल बदल से रोकने के लिए 35 साल पहले सन 1985 में जो क़ानून बना, उसमें राजनीतिक दल को व्यापक तरीके से परिभाषित नहीं किया गया। जनप्रतिनिधित्व कानून के तहत चुनाव आयोग द्वारा राजनीतिक दलों का रजिस्ट्रेशन करने के बावजूद चुनाव आयोग इन दलों के लिए नियामक की भूमिका नहीं निभाता। किसी भी सोसाइटी, ट्रस्ट या एनजीओ को पदाधिकारियों तथा सदस्यों का सालाना विवरण जमा करना होता है। लेकिन करोड़ों सदस्यों का दावा करने वाले सभी राजनीतिक दल अपने सदस्यों का ना तो सार्वजनिक रजिस्टर रखते हैं और ना ही इसका ब्योरा चुनाव आयोग के सम्मुख फाइल करते हैं।

देश में हर छोटी बात के लिए क़ानून है, लेकिन राजनीतिक दलों के लिए पूरा मैदान साफ़ होने की वजह से दलों और सरकार का फर्क खत्म हो गया है। इसी वजह से सत्ता का पिरामिड, राजनीतिक दलों के वंशवाद और हाईकमान पर केंद्रित हो गया है।

दलबदल विरोधी कानून इसलिए भी विफल है क्योंकि इसमें पार्टी सदस्यों को दरकिनार करके सिर्फ विधायक या सांसद की संख्या के आधार पर ही दलों का आंकलन हो रहा है। हाईकोर्ट के अंतरिम फैसले के पैरा एल में सुप्रीम कोर्ट की लार्जर बेंच के जिन सात बिंदुओं का जिक्र है, उन्हें 4 साल पहले ही सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस गोगोई ने दो पेज के छोटे फैसले से निपटा दिया था, जिसे अब फिर से खोलने की जरूरत है।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा दलों को परिभाषित करने के साथ उनकी पारदर्शिता और कानूनी जवाबदेही तय हो तो निचले स्तर तक लोकतंत्र की जड़ें मजबूत होंगी। राजस्थान में सत्ता की जंग में जीत का निर्धारण भले ही अदालत से बाहर हो जाए, लेकिन अब दलों को बदलने के लिए न्यायिक पहल जरूरी है। राजनेताओं को भी अब फाइव स्टार होटलों की कैद से बाहर निकलकर क़ानून से जुड़ना होगा, तभी संवैधानिक लोकतंत्र के प्रति जनता का भरोसा भी बढ़ेगा।

(ये लेखक के अपने विचार हैं, लेखक विराग गुप्ता सुप्रीम कोर्ट मे अधिवक्ता हैं )

Virag Gupta is Lawyer at Supreme Court and Writer working for Inclusive Growth & Social Transformation through Judicial Reforms & Youth Participation.

Web Desk
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